दर्द पहाड़ों के

 कटते हुए पहाड़ों को देखकर तो ऐसा लगता है कि सारा विकास पहाड़ों में ही हो रहा है, लेकिन जब गांव की तरफ जाना होता है तो साल दर साल देखने को मिलता है कि कई लोग विकास की राह ढूंढते - ढूंढते शहरों का रुख कर चुके होते हैं। और कई गांव मनुष्यों के अभाव में बंजर हो चुके होते हैं। नहीं है पूछने वाला उन गांवों को कोई, जहां कभी पनघट पर पानी भरती पंदेरियों की खिलखिलाहट अलग ही शोभा बढ़ाया करतीं थी, घसेरियों के गीत वहां के जंगलों में गूंजते रहते थे, खेतों में हल चलाते मर्दों की हाकें सुनाई देती थी‌, लेकिन वही गांव आज मनुष्यों के लिए तरस रहे हैं ।

ये दर्द सिर्फ गांव के बुजुर्गों के आंखों में देखने को मिलता है, जिन्होंने कभी इन पहाड़ों को आबाद करने का बीड़ा उठाया था । उजड़ते बंजर होते पहाड़ों को देखकर उनके मन मस्तिष्क में एक चुभन सी महसूस करी है मैंने कई बार। शायद ऐसा ही सोचते होंगे कि ऐसी कौन सी परवरिश हम अपनी नई पीढ़ी को नहीं दे पाए कि जो इन पहाड़ों को आबाद रखने में नाकाम रहे हैं। नेताओं को भी तो दिल खोलकर वोट दिया था, सहयोग दिया था। कोई कमी कसर भी तो नहीं छोड़ी थी। उत्तराखंड अलग राज्य बनाने के लिए भी तमाम आंदोलन कये, जानें तक दीं। ताकि पहाड़ों को सुदृढ़ बनाया जाए, विकास की लहर आए। अलग राज्य मिला लेकिन पहाड़ों के अस्तित्व पर बदस्तूर खतरा जारी रहा। नेताओं ने भी खूब ऱगबिरंगी राजनीति की । कोई गेंठी खाता रहा, कोई भांग उगाता रहा, लेकिन अभी तक विकास की लहलहाती फसल कोई नहीं उगा पाया इन पहाड़ों पर....!


रोते हैं अक्सर जब भी भेंट होती है,

बेटा तुझ से भी तो आस बहुत हैं ये पहाड़ कहते हैं,

मैं सिर झुकाकर चुपचाप खड़ा रहता हूं, 

समझ ही नहीं आता कि मर्म लिखूं या शर्म लिखूं !


नजाने  ये  कैसा  वैश्वीकरण  हो रहा है, 

जो विश्व के नक्शे से मेरा गांव ही खो रहा है!

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राहुल.


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