"चला फुलारी फूलों कोसौदा-सौदा फूल बिरौलाा"
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फोटो : चंद्रकांत कंडवाल |
यदि मैं प्रकृति एवं उत्तराखण्ड के बीच सम्बन्धो की व्याख्या करूँ तो इन दोनों का आपस में आदि काल से ही गहरा सम्बन्ध है। प्रकृति ने इस छोटे से पहाड़ी राज्य को अद्भुत एवम अपार प्राकृतिक धन सम्पदायें सौगात में दी हैं। उत्तराखंड के लोकगीत, लोक नृत्य और लोक पर्व भी कहीं न कहीं प्रकृति से जुड़े हैं और इन लोकपर्वों को मनाने के पीछे कुछ न कुछ प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व भी जुड़ा रहता है ।
उत्तराखंड में मनाया जाने वाला फूल देई का त्यौहार भी मानव एवं प्रकृति के बीच सौहार्द पूर्ण सम्बन्ध का सूचक है । पहले तो यह त्यौहार सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में चैत्र मास की सग्रान्द /मीन सक्रांति यानी कि हिन्दू शक सम्वत के अनुसार हिन्दू नवमास के 1 गते से 8 गते या पूरे महीने भर मनाया जाता था पहाड़ी क्षेत्रों में चैत्र के महीने की काफी विशेषता है इस महीने से बर्फ पिघलने लग जाती है डांडी कंठियों, में घर की देहलियों, में खेतों की मेंडो में लाल, पीले, नीले बैंगनी, फ्योंली, लयाड़ी, कुर्याल, पय्यां के फूल खिल जाते हैं।
हे जी घर-बौण बौडी ग्ये होलु बाळू-बसंत
हे जी सार्यूं मा फूली ग्ये होली !
ये पंक्तियां उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध लोकगीत से ली गयी हैं जो कि उत्तराखण्ड के सुप्रसिद्ध लोकगायक गढ़रत्न 'नरेन्द्र सिंह नेगी' द्वारा लिखा एवं गाया गया है। इन पंक्तियां में रोजगार के लिये शहर में रहे रहे नायक/नायिका को बसंत आगमन पर पहाड़ों और अपने गांव की यादें शताने लगती है और वो जिद करन लगे हैं पहाड़ जाने के लिए, जहां पकृति ने अलग ही छटा बिखेरी है। ऐसा नजारा शहरों में देखने को नहीं मिलता है।
इस दिन छोटे बच्चे जिन्हें फुलारी कहा जाता है घर की देहलियों में फ्योंली, बुरांस, लयाड़ी के पुष्प डालते हैं। अन्न - धन्न नाज के भंडार भकार भरने की दुआ देते हैं, बदले में अपनी खीर के लिए चावल मांगते हैं। इस पर्व में बच्चों की भूमिका होने के कारण इसे बाल पर्व की संज्ञा भी दी जाती है। इस पर्व को मनाने के पीछे आदि काल से लेकर कई किवदंतियां भी जुड़ी हैं जिनका वर्णन मैं आगे करूँगी।
फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार
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फोटो: संजय कठैत |
पहले तो पहाड़ों में ये चैत्र का महीना धियाणियों अर्थात विवाहित युवतियों के लिये भी बहुत महत्व रखता था। कहा जाता है पहले जमाने में जब लड़की की शादी हो जाती थी तो उसे वर्ष भर ससुराल में ही रहना पड़ता था, और चैत्र का महीना ही एक ऐसा महीना होता था जब या तो उसे मायके बुलाया जाता था या उसके मायके से कोई उसके ससुराल बेटी से मिलने जाता था या फिर बेटी के मायके के औजी या औजिगी बेटी के मायके जाते और उसके मायके वालों का संदेश गीत गाने के साथ ढोलकी बजाकर बेटी को देते उसमें और बदले में बेटी भी गायकी में ही अपने माँ पिता जी के हाल खबर पूछती और यह वार्तालाप करुणा और दर्द से भरी होती है। लेकिन समय बदलता चला गया और अब समाज बहुत विकसित हो चुका है अब शायद ही कोई युवती ससुराल में इतने कष्ट सहती होगी या इतने कष्ट किसी को दिए जाते होंगे, न अब मायके और ससुराल में इतनी दूरियां हैं। और अब कहीं न कहीं मानव/समाज विकास के साथ - साथ हमने अपनी परम्पराएं खो दी हैं। 80-90 के दशक तक इन त्यौहारों का जो महत्व था वो महत्व शायद ही अब रह गया हो। हालांकि त्यौहार तो अब भी महत्वपूर्ण हैं किंतु अब मनाने का ढंग अलग है। आज हम सिर्फ त्यौहार हैं करके सोशल मीडिया के फ़ॉलोअर्स को दिखाने के लिये फ़ोटो खींचने के लिए मना देते हैं लेकिन पहले इन त्यौहारों को मनाने का महत्व अलग होता था।
इतिहास में फूल देई :-
देवभूमि उत्तराखंड का सुप्रसिद्ध लोकपर्व फूल देई की यद्दपि गांव घरों में वो पुरानी महत्ता विलुप्त हो रही है, परंतु यह त्यौहार आज पूरे भारत वर्ष में जहां भी उत्तराखण्ड के लोग उपस्थित होंगे आधुनिक तरीके से अपना गरिमामय स्थान स्थापित कर चुका है। इसे प्रसिद्धि दिलाने में उत्तराखण्ड के लोक कलाकारों का अहम भूमिका है।
इस पर्व के इतिहास के बारे में यदि जानना चाहें तो कई कहानियां किवदंतियां सुनने को मिलती हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख निम्न हैं:-
पुराने ग्रन्थों एवम पुराणों में वर्णन के अनुसार एक बार शिव तपस्या में लीन थे। ऋतु परिवर्तन के कई वर्ष बीत गए किंतु शिव की तपस्या नहीं टूटी। कैलास में शिव गणों एवम मा पार्वती का जीवन भी बेमौसमी हो गया। अंत में माँ पार्वती ने कविलास में सर्वप्रथम फ्योंली के फूल खिलने के कारण सभी शिवगणों को पीताम्बरी चोला पहनाकर उन्हें अबोध बालकों के स्वरूप प्रदान कर दिया गया, और कहा कि देव वाटिकाओं से ऐसे फूल चुन के लाओ जो भँवरों के जूठे न हो एवं जिनकी खुशबू सम्पूर्ण कैलास को महका दे ।सबने फूल चुने और सर्वप्रथम पुष्प तपस्या में लीन शिव को अर्पित किए साथ ही तपस्या भंग करके क्षमा भी भी मांगने लगे कहने लगे -फूल देई क्षमा देई, इस पर शिव की तपस्या टूटी एवम इन अबोध बालकों को देखकर उनका क्रोध भी शांत हो गया और प्रसन्न मन से इस उत्सव में शामिल हो गए। तब से पहाड़ों में फूल देई मनाया जाता है। इसलिए इस त्योहार का आगाज तो बच्चे करते हैं लेकिन समापन किसी बुजुर्ग के हाथों से ही होता है। इसी त्यौहार के कारण संसार को पुष्पों की महक के बारे में पता लगा,और पुष्पों को देवताओं का सबसे प्रिय आभूषण माना जाने लगा तथा इसकी कोमलता के कारण पुष्प को पार्वती तुल्य मानते हैं।
स्कंध पुराण के अनुसार एक बार धरती पर असुरों का राज हो गया। उन्होंने स्वर्ग पर भी अपना कब्जा कर लिया। तब देवराज इंद्र राज्यविहीन होकर शिव की आराधना करने लगे। शिव ने प्रसन्न होकर कहा- केदारयामि! अर्थात किसका वध करूँ?? तब इंद्र ने कहा हे प्रभु! यदि आप प्रसन्न हो तो केवल इन 5 बलशाली असुरों का वध करो। तब भगवान ने कहा सिर्फ 5 ही क्यों ? और क्यों नहीं? तब इंद्र बोले, 'इन पांचों के बिना असुर सेना कुछ भी नहीं, तो अन्य को मारकर खाली खून खराबा क्यों करें?' तब भगवान शिव इंद्र से प्रसन्न हुए और कहा हे देवराज से मन इच्छित वर मांगने के लिए कहा। तब इंद्र ने कहा प्रभु यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो आप हमेशा के लिए इस स्थान पर निवास करो और आपने यहां पर पहला शब्द केदार पुकारा आज से आप यहां केदार नाम से जाने जाएं, तब भगवान तथास्तु कर वहीं अंतर्ध्यान हो गए। तब से इन्द्र इस स्थान पर मन्दिर बना कर नित्य आराधना करने लगे और यह स्थान केदार नाम से विख्यात हुआ। लेकिन वृश्चिक संक्रांति के दिन अचानक इन्द्र ने देखा कि मन्दिर बर्फ के नीचे पूरी तरह लापता है। बहुत ढूँढने के बाद भी इन्द्र को मन्दिर या शिव के दर्शन नहीं हुए। तब इन्द्र दुखी हुए पर नित्य प्रति केदार हिमालय में भगवान शिव के पूजन हेतु आते रहे। मीन संक्रांति के दिन वर्फ पिघलने पर अचानक इन्द्र को भगवान शंकर के मन्दिर के दर्शन हुए। इससे प्रसन्न इन्द्र ने स्वर्ग के सभी लोगों अप्सराओं, यक्ष-गन्धर्वों को उत्सव मनाने का आदेश दिया । जिससे सारे हिमालय में भगवान शंकर की आराधना में अप्सराएं जगह - जगह मार्गों एवं हर घर में पुष्प वृष्टि करने लगीं। गन्धर्व गायन–वादन करने लगे, यक्ष् नृत्य करने लगे।तब से केदार हिमालय में यह उत्सव परम्परा आज तक जारी है।
आज भी परियों और अप्सराओं की प्रतीक छोटी–छोटी बेटियां मीन संक्रांति चैत्र मॉस की सक्रांति के दिन के दिन हर घर में फूलों की वर्षा करती हैं। कुछ स्थानों पर केवल संक्रांति के दिन, कुछ जगहों पर 8 दिन, कुछ जगहों पर पूरे महीने घरों में फूल डाल कर यह उत्सव मनाया जाता है। यही नहीं इस उत्सव का प्रसाद पहाड़ के हर घर में विद्यमान पुत्री को हलवा के रूप में दिया जाता है, तथा हर घर की विवाहित पुत्री को मायके से उसके ससुराल में पूरे महीने भर कलेवा देने का रिवाज है।मगर आज वक्त बदल गया अपनी भौतिक सुख सुविधाओं के लिए लोग शहरों में बसने लगे हैं। पहली सी रौनक पहाडों में नहीं रही। त्यौहार मानाने का ढंग बदल गया। बहुत कम लोग हैं जो परम्पराओं के अनुसार त्यौहार को मनाते हैं , और आज हमारे आरू च्यूला के फूल हमें ढूंढ़ रहे हैं।
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फोटो साभार सोशल मिडिया |
पहाड़ों में पलायन की मार से जूझ रहे गांवों में यह त्यौहार आज अपना अस्तित्व ढूंढने में लगा है तथा खेतों की मेंढ़ों में फूलती फ्योंली लयाड़ी उन वीरान हुए घरों की देहलियों में अपनी महक महकाने के लिए तरस रही हैं और बंजर वीरान हुए पहाड़ों के लिए आबाद होने की दुआएं मांग रही हैं।
नीलम रावत .
शानदार, जबर दस्त
ReplyDeleteबहुत अछा,आप पर सरस्वती और गणेश जी कृपा बनी रहे ।
ReplyDeleteअति सुन्दर:)
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