महात्मा बुद्ध || जीवन वृत्त

हम  खोजेंगे तो आसपास ही मिलेंगे बुद्ध !
गन्धार कला में भगवान बुद्ध की  सबसे सुंदर कलाकृति 



अगर शब्दों में बुद्ध के शरीर की तलाश करें तो प्रबोधन, प्रेम ,समभाव और करुणा में हम बुद्ध के दर्शन करेंगे।

बुद्ध के पास वो सब कुछ था जिसके लिए हमारी दुनियां पागलों की तरह भागती है : भोग विलास के उपकरण, कीर्ति,  अर्थ, ऐश्वर्य और राजसी आनंद। लेकिन हृदय में जन्मी करुणा ने इन सबको मिट्टी बना दिया...उन्होंने जान लिया कि "Imperfect is the joy not shared by all"(अधूरा है वो आनंद जो सबका नहीं है) सावित्री में श्री अरविन्द 

क्या है करुणा ?

श्री अरविन्द ने दया और करुणा का अन्तर इस तरह साफ़ किया है :

दूसरों के दुःखों, परेशानियों और दुर्भाग्यों से संवेदना/सहानुभूति का भाव रखना दया(pity) है ।

दूसरों के दुःखों ,कष्टों और दुर्भाग्यों को समझना और ' उन्हें उनके दुःखों और दुर्भाग्यों से मुक्त करने की सामर्थ्य रखना करुणा है'.

संसार के पास ज़्यादा से ज़्यादा सांत्वना और सहानुभूति मिल सकती हैं लेकिन करुणा और कृपा सिर्फ़ भगवान का गुण है...

संसार बहुत शानदार अदाकारों से भरा हुआ है।
हमने दुःखों और दुर्भाग्यों को बनावटी मुस्कुराहटों से छिपाना सीख लिया है...
प्रेम, सौंदर्य ,प्रज्ञा और आनंद से भरे जाने वाले भीतर के शून्य(abyss) को मॉल की चीज़ों से भरने का जतन बचकाना ही कहा जायेगा...

निःसंदेह अलौकिक थे बुद्ध... जिनके ध्यान की खुशबू भारत की सीमाओं से निकलकर पूरब, पश्चिम ,उत्तर और दक्षिण सब तरफ फ़ैली...ध्यान की रिमझिम बारिश में मलेच्छ संभ्यताओं को नए नए अर्थ और अलंकरण मिले। हिंसक और हत्यारी जातियों ने प्रेम की परिभाषा का पाठचक्र शुरू किया...
जिनके पास बुद्ध को सूघने के लिए नथूने हैं उन्हें आज भी ये खुशबू चीन के फेहन प्रान्त स्थित शाओलिन मोनेस्ट्री, कोरिया, जापान, जावा, सुमात्रा, वियतनाम, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, तिब्बत से लेकर पल्म विलेज फ्रांस से आती प्रतीत होगी...

वाल्डेन में थोरो ने लिखा : We have become tools of our tools
(हम अपने औजारों के औज़ार बनकर रह गए हैं !)
आज अमेरिका , ऑस्ट्रेलिया ,अफ्रीका सहित पूरे यूरोप महाद्वीप में जग़ह जग़ह बुद्ध को जानने की प्यास गहरा रही है, नए नए स्कूल और मोनास्ट्रीज़ खुल रहे हैं...

किन्नौर घाटी में लामा गोविन्द गिरी(YouTube पर  देखें The Mountain Yogi फिल्म) हों , दलाई लामा हों या 94 साल की उम्र में वियतनाम स्थित अपनी मातृभूमि में 
हर शाम ध्यान में डूबते तिक नयात हनह हों... इन सबको देखकर बुद्ध की याद यानी स्वाभाविक है... आप अजंता की गुफा में मुस्कुराती "ध्यानी बुद्ध " की प्रतिमा या सारनाथ संग्रहालय में रखी गयी बुद्ध की " धर्मचक्रप्रवर्तन" मुद्रा में बनी प्रतिमा का लालित्य पढ़कर भी बुद्ध को खोज सकते हैं...

कभी ठहरकर चलना किसी बोधविहार में... हम बुद्ध की पदचाप सुनेंगे...

इस मुश्क़िल समय में अपने भीतर के बुद्ध की तलाश सबसे सहज काम है !
जब आसपास इतना दर्द पसरा हो, इतनी चीखपुकार मची हुई हो, इतना ग़म ग़ुस्सा और ख़ौफ़ ख़ामोशी का क़ारोबार चल रहा हो तो प्रेम,मैत्री और करुणा के अनगिनत स्पर्श हमें सहज बुद्ध बना सकते हैं।

ये खुली आँखों के साथ ध्यान करने का समय है !

मेरा आज का दिन तिक नयात की क़िताब "जहँ जहँ चरन परे गौतम के" साथ गुजरेगा।
इस क़िताब से कुछ आलोक हम सबके लिए :

"मै मुस्कुराता हूँ क्योंकि न तो मै जन्मा हूँ और न मै मरूँगा। जन्म के कारण मेरा अस्तित्व नहीं है और न मृत्यु से मै अस्तित्वहीन होऊँगा"

जीवन वृत्त 
का जन्म ईसा से 563 साल पहले जब कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो रास्ते में लुम्बिनी वन में हुआ।
उनका नाम रखा गया। उनके पिता का नाम शुद्धोदन था। जन्म के सात दिन बाद ही मां का देहांत हो गया। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया।
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हांकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता।
@सिद्धार्थ  के मन में बचपन से ही करुणा भरी थी। उनसे किसी भी प्राणी का दुख नहीं देखा जाता था। यह बात इन उदाहरणों से स्पष्ट भी होती है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुंह से झाग निकलने लगता तब सिद्धार्थ उन्हें थका जान कर वहीं रोक देते और जीती हुई बाजी हार जाते थे। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुखी होना उनसे नहीं देखा जाता था।

एक समय की बात है सिद्धार्थ को जंगल में किसी शिकारी द्वारा तीर से घायल किया हंस मिला। उन्होंने उसे उठाकर तीर निकाला, सहलाया और पानी पिलाया। उसी समय सिद्धार्थ का चचेरा भाई देवदत्त वहां आया और कहने लगा कि यह शिकार मेरा है, मुझे दे दो। सिद्धार्थ ने हंस देने से मना कर दिया और कहा कि- तुम तो इस हंस को मार रहे थे। मैंने इसे बचाया है। अब तुम्हीं बताओ कि इस पर मारने वाले का हक होना चाहिए कि बचाने वाले का?



देवदत्त ने सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोदन से इस बात की शिकायत की। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ से कहा कि यह हंस तुम देवदत्त को क्यों नहीं दे देते? आखिर तीर तो उसी ने चलाया था?

इस पर ने कहा- पिताजी! यह तो बताइए कि आकाश में उड़ने वाले इस बेकसूर हंस पर तीर चलाने का उसे क्या अधिकार था? हंस ने देवदत्त का क्या बिगाड़ा था? फिर उसने तीर क्यों चलाया? क्यों इसे घायल किया? मुझसे इस प्राणी का दुख देखा नहीं गया। इसलिए मैंने तीर निकाल कर इसकी सेवा की। इसके प्राण बचाए। हक तो इस पर मेरा ही होना चाहिए।


राजा शुद्धोदन को सिद्धार्थ की बात जंच गई। उन्होंने कहा कि ठीक है तुम्हारा कहना। मारने वाले से बचाने वाला ही बड़ा है। इस पर तुम्हारा ही हक है।

शाक्य वंश में जन्मे सिद्धार्थ का 16 वर्ष की उम्र में  यशोधरा के साथ हुआ। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहां पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उनकी सेवा में रख दिए गए। पर यह सब चीजें सिद्धार्थ को संसार से बांधकर नहीं रख सकीं

 वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया

एक रात बुद्ध परिवार और राज मोह छोड़ कर तपस्या के लिए निकल गए।वह राजगृह पहिंचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।

सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या  शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग : एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही  योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग  ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है।

 ३५ वर्ष की आयु में वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की तथा सुजाता नामक लड़की के हाथों खीर खाकर उपवास तोड़ा।।



उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल  वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष  कहलाया और गया  का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया ।

बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम्‌ भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।

बुद्ध के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु :

(1) बौद्ध धर्म के संस्थापक थे गौतम बुद्ध. इन्हें एशिया का ज्योति पुंज कहा जाता है.

(2) गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई. पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी, नेपाल में हुआ था.


(3) इनके पिता शुद्धोधन शाक्. गण के मुखिया थे। 

 सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी मां मायादेवी का देहांत हो गया था.


(5) सिद्धार्थ की सौतेली मां प्रजापति गौतमी ने उनको पाला.


6) इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था.


(7) सिद्धार्थ का 16 साल की उम्र में दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ.


(8) इनके पुत्र का नाम राहुल था

(9) सिद्धार्थ जब कपिलावस्तु की सैर के लिए निकले तो उन्होंने चार दृश्यों को देखा:

(i) बूढ़ा व्यक्ति

(ii) एक बिमार व्यक्ति

(iii) शव

(iv) एक संयासी

(10) सांसारिक समस्याओं से दुखी होकर सिद्धार्थ ने 29 साल की आयु में घर छोड़ दिया. जिसे बौद्ध धर्म में महाभिनिष्कमण कहा जाता है.

(11) गृह त्याग के बाद बुद्ध ने वैशाली के आलारकलाम से सांख्य दर्शन की शिक्षा ग्रहण की.


(12) आलारकलाम सिद्धार्थ के प्रथम गुरू थे.


(13) आलारकलाम के बाद सिद्धार्थ ने राजगीर के रूद्रकरामपुत्त से शिक्षा ग्रहण की.


(14) उरूवेला में सिद्धार्थ को कौण्डिन्य, वप्पा, भादिया, महानामा और अस्सागी नाम के 5 साधक मिले.


(15) बिना अन्न जल ग्रहण किए 6 साल की कठिन तपस्या के बाद 35 साल की आयु में वैशाख की पूर्णिमा की रात निरंजना नदी के किनारे, पीपल के पेड़ के नीचे सिद्धार्थको ज्ञान प्राप्त हुआ. 

(16) ज्ञान प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ बुद्ध के नाम से जाने जाने लगे. जिस जगह उन्‍हें ज्ञान प्राप्‍त हुआ उसे बोधगया के नाम से जाना जाता है.

17) बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया जिसे बौद्ध ग्रंथों में धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है.

18) बुद्ध ने अपने उपदेश कोशल, कौशांबी और वैशाली राज्य में पालि भाषा में दिए.

(19) बुद्ध ने अपने सर्वाधिक उपदेश कौशल देश की राजधानी श्रीवस्ती में दिए.... 

20) इनके प्रमुख अनुयायी शासक थे:

(i) बिंबसार

(ii) प्रसेनजित

(iii) उदयन


(21) बुद्ध की मृत्यु 80 साल की उम्र में कुशीनगर  में चुन्द द्वारा अर्पित भोजन करने के बाद हो गई. जिसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा गया है.


22) मल्लों ने बेहद सम्मान पूर्वक बुद्ध का अंत्येष्टि संस्कार किया.


(23) एक अनुश्रुति के अनुसार मृत्यु के बाद बुद्ध के शरीर के अवशेषों को आठ भागों में बांटकर उन पर आठ स्तूपों का निर्माण कराया गया.

24 ) बुद्ध के अनुयायी दो भागों मे विभाजित थे:

(i) भिक्षुक- बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जिन लोगों ने संयास लिया उन्हें भिक्षुक कहा जाता है.

(ii) उपासक- गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए बौद्ध धर्म अपनाने वालों को उपासक कहते हैं. इनकी न्यूनत्तम आयु 15 साल है.


(25 ) प्रविष्ठ बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं-

(i) बुद्ध

(ii) धम्म

(iii) संघ 

(26 ) चतुर्थ बौद्ध संगीति के बाद बौद्ध धर्म दो भागों में विभाजित हो गया:

(i) हीनयान

(ii) महायान 

(२७) धार्मिक जुलूस सबसे पहले बौद्ध धर्म में ही निकाला गया था.


(28 ) बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र त्यौहार वैशाख पूर्णिमा है जिसे बुद्ध पूर्णिमा कहा जाता है। 


(29 ) बुद्ध ने सांसारिक दुखों के संबंध में चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया है. ये हैं

(i) दुख

(ii) दुख समुदाय

(iii) दुख निरोध

(iv) दुख निरोधगामिनी प्रतिपदा  


(30 ) सांसारिक दुखों से मुक्ति के लिए बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग की बात कही. ये साधन हैं.

(i) सम्यक दृष्टि

(ii) सम्यक संकल्प

(iii) सम्यक वाणी

(iv) सम्यककर्मांत

(v) सम्यक आजीव

(vi) सम्यक व्यायाम

(vii) सम्यक स्मृति

(viii) सम्यक समाधि

(31) बुद्ध ने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया

(32 ) अनीश्वरवाद के संबंध में बौद्धधर्म और जैन धर्म में समानता है.


(33 ) जातक कथाएं प्रदर्शित करती हैं कि बोधिसत्व का अवतार मनुष्य रूप में भी हो सकता है

(34  ) बोधिसत्व के रूप में पुनर्जन्मों की दीर्घ श्रृंखला के अंतर्गत बुद्ध ने शाक् मुनि के रूप में अपना अंतिम जन्म प्राप्त किया.

(35 ) सर्वाधिक बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण गंधार शैली के अंतर्गत किया गया था. लेकिन बुद्ध की प्रथम मूर्ति मथुरा कला के अंतर्गत बनी थी.



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